जीवन की सार्थकता
राजस्थान पत्रिका के परिवार परिशिष्ठ में प्रकाशित रचना ---
जीवन की सार्थकता
सुन बहना ,आज उठना नहीं है क्या ? ओस की बूंद ने गुलाब की अनखिली कली से कहा !
नहीं री , आज मन नहीं है उठने का ,खिलने का , अनमने से कली ने कहा
क्यों? क्या हुआ सखी …
कुछ नहीं , यूँ ही.…
बता ना ,कुछ तो है , शबनम ने पूछा
ये भी कोई जिंदगी है अपनी ? काँटों के बीच रहो ,सुबह खिलो ,अपने को विकसित करो ,जीवन को पूरा जी भी नहीं पाओ कि कोई भी इंसान आ कर तोड़ लेता है ! या कोई जानवर खा जाता है ! या शरारती बच्चे मसल कर फेंक देते हैं ! और ऐसा कुछ भी नहीं हो तो शाम को अपने आप ही मुरझा कर पोधे से जमीन पर गिर जाते हैं ! क्या जिंदगी है ,बेकार ,निरर्थक है ना ? कली ने कहा
शबनम मुस्कुराई ,बोली , अरे हमारे जीवन जैसा सार्थक जीवन तो किसी का है ही नहीं !
अब तुम्हें ही लो ,सुबह उठती हो ,अपनी सुवास इस जग में बिखेरती हो ! लोगों की आँखों को सुकून देती हो ,लोग तुम्हें चाहते हैं ,इसीलिए अपने आराध्य के चरणों और अपनी प्रेयसी के बालों में तुम्हें अर्पण करते हैं !तुम लोगों की ख़ुशी में और गम में भी शरीक होती हो ! दिन भर अपनी सुगन्ध से वातावरण को महकाए रखती हो ! और सबसे बड़ी बात इतनी विषमताओं ,इतने काँटों के बीच भी खिल कर अपनी मुस्कान बनाये रखती हो ,कम बात है क्या ?
और शाम को जब इस दुनिया से जाती हो तो एक सम्पूर्ण जीवन जी कर ,जीवन को पूरी तरह महसूस कर के जाती हो ! नहीं तो इस दुनिया में ऐसे भी पत्थर और पत्थर जैसे लोग हैं जो हैं तो सालों से जिन्दा ,पर जिंदगी को जीना अभी तक नहीं आया उन्हें ,निरर्थक है उनकी जिंदगी
और तुम तो फिर भी दिन भर जी लेती हो ,मेरा अस्तित्व तो क्षण भर का ही है ! सूरज दादा के आते ही मेरा वजूद खत्म हो जाता है ! फिर भी जितने भी क्षण में जिन्दा रहती हूँ , सबसे मिलती रहती हूँ ,हर सुबह तुम जैसे सभी पेड़,पोधों ,फूलों को होले से जगाती हूँ ,उनसे दुआ-सलाम करती हूँ ,शायरों की कविताओं की प्रेरणा बनती हूँ ! मैं जानती हूँ ,मेरा जीवन बहुत छोटा है ,पर सार्थक है
चल अब में चलती हूँ , सूरज दादा आ गए हैं !
सूरज की गर्मी में विलीन होती ओस की बूंद ने देखा ,कलि मुस्कुरा कर ,खिलते हुए ,हाथ हिला कर उसको विदा कर रही है !
सुवासित फूल अब तैयार था संसार में अपनी सुगंध फैलाने के लिए ……
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डॉ नीरज यादव
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